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वरदान--मुंशी प्रेमचंद


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पहले दर्शकों ने उसका बहुत आशाजनक स्वागत न किया। एक तो वह इस काम में अभ्यस्त न थी, दूसरे उसकी परशंसा के पुल बांधकर जनता को पहले ही से उत्सुक न बनाया गया था। लेकिन कुछ दिनों तक गौण चरित्रों का पार्ट खेलने के बाद उसके यौवन ने वह हाथपांव निकाले कि सारा नगर लोटपोट हो गया। रंगशाला में कहीं तिल रखने भर की जगह न बचती। नगर के बड़ेबड़े हाकिम, रईस, अमीर, लोकमत के परभाव से रंगशाला में आने पर मजबूर हुए। शहर के चौकीदार, पल्लेदार, मेहतर, घाट के मजदूर, दिनदिन भर उपवास करते थे कि अपनी जगह सुरक्षित करा लें। कविजन उसकी परशंसा में कवित्त कहते। लम्बी दायिों वाले विज्ञानशास्त्री व्यायामशालाओं में उसकी निन्दा और उपेक्षा करते। जब उसका तामझाम सड़क पर से निकलता तो ईसाई पादरी मुंह फेर लेते थे। उसके द्वार की चौखट पुष्पमालाओं से की रहती थी। अपने परेमियों से उसे इतना अतुल धन मिलता कि उसे गिनना मुश्किल था। तराजू पर तौल लिया जाता था। कृपण बू़ों की संगरह की हुई समस्त सम्पत्ति उसके ऊपर कौड़ियों की भांति लुटाई जाती थी। पर उसे गर्व न था। ऐंठ न थी। देवताओं की कृपादृष्टि और जनता की परशंसाध्वनि से उसके हृदय को गौरवयुक्त आनन्द होता था। सबकी प्यारी बनकर वह अपने को प्यार करने लगी थी।

कई वर्ष तक ऐन्टिओकवासियों के परेम और परशंसा का सुख उठाने के बाद उसके मन में परबल उत्कंठा हुई कि इस्कन्द्रिया चलूं और उस नगर में अपना ठाटबाट दिखाऊं, जहां बचपन में मैं नंगी और भूखी, दरिद्र और दुर्बल, सड़कों पर मारीमारी फिरती थी और गलियों की खाक छानती थी। इस्कन्द्रियां आंखें बिछाये उसकी राह देखता था। उसने बड़े हर्ष से उसका स्वागत किया और उस पर मोती बरसाये। वह क्रीड़ाभूमि में आती तो धूम मच जाती। परेमियों और विलासियों के मारे उसे सांस न मिलती, पर वह किसी को मुंह न लगाती। दूसरा, लोलस उसे जब न मिला तो उसने उसकी चिन्ता ही छोड़ दी। उस स्वर्गसुख की अब उसे आशा न थी।

उसके अन्य परेमियों में तत्त्वज्ञानी निसियास भी था जो विरक्त होने का दावा करने पर भी उसके परेम का इच्छुक था। वह धनवान था पर अन्य धनपतियों की भांति अभिमानी और मन्दबुद्धि न था। उसके स्वभाव में विनय और सौहार्द की आभा झलकती थी, किन्तु उसका मधुरहास्य और मृदुकल्पनाएं उसे रिझाने में सफल न होतीं। उसे निसियास से परेम न था, कभीकभी उसके सुभाषितों से उसे चि होती थी। उसके शंकावाद से उसका चित्त व्यगर हो जाता था, क्योंकि निसियास की श्रद्घा किसी पर न थी और थायस की श्रद्घा सभी पर थी। वह ईश्वर पर, भूतपरेतों पर जादूटोने पर, जन्त्रमन्त्र पर पूरा विश्वास करती थी। उसकी भक्ति परभु मसीह पर भी थी, स्याम वालों की पुनीता देवी पर भी उसे विश्वास था कि रात को जब अमुक परेत गलियों में निकलता है तो कुतियां भूंकती हैं। मारण, उच्चाटन, वशीकरण के विधानों पर और शक्ति पर उसे अटल विश्वास था। उसका चित्त अज्ञात न लिए उत्सुक रहता था। वह देवताओं की मनौतियां करती थी और सदैव शुभाशाओं में मग्न रहती थी भविष्य से यह शंका रहती थी, फिर भी उसे जानना चाहती थी। उसके यहां, ओझे, सयाने, तांत्रिक, मन्त्र जगाने वाले, हाथ देखने वाले जमा रहते थे। वह उनके हाथों नित्य धोखा खाती पर सतर्क न होती थी। वह मौत से डरती थी और उससे सतर्क रहती थी। सुखभोग के समय भी उसे भय होता था कि कोई निर्दय कठोर हाथ उसका गला दबाने के लिए ब़ा आता है और वह चिल्ला उठती थी।

निसियास कहता था-'पिरये, एक ही बात है, चाहे हम रुग्ण और जर्जर होकर महारात्रि की गोद में समा जायें, अथवा यहीं बैठे, आनन्दभोग करते, हंसतेखेलते, संसार से परस्थान कर जायें। जीवन का उद्देश्य सुखभोग है। आओ जीवन की बाहार लूटें। परेम से हमारा जीवन सफल हो जायेगा। इन्द्रियों द्वारा पराप्त ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है। इसके सिवाय सब मिथ्या के लिए अपने जीवन सुख में क्यों बाधा डालें ?'
थायस सरोष होकर उत्तर देती-'तुम जैसे मनुष्यों से भगवान बचाये, जिन्हें कोई आशा नहीं, कोई भय नहीं। मैं परकाश चाहती हूं, जिससे मेरा अन्तःकरण चमक उठे।'
जीवन के रहस्य को समझने के लिए उसे दर्शनगरन्थों को पॄना शुरू किया, पर वह उसकी समझ में न आये। ज्योंज्यों बाल्यावस्था उससे दूर होती जाती थी, त्योंत्यों उसकी याद उसे विकल करती थी। उसे रातों को भेष बदलकर उन सड़कों, गलियों, चौराहों पर घूमना बहुत पिरय मालूम होता जहां उसका बचपन इतने दुःख से कटा था। उसे अपने मातापिता के मरने का दुःख होता था, इस कारण और भी कि वह उन्हें प्यार न कर सकी थी।

जब किसी ईसाई पूजक से उसकी भेंट हो जाती तो उसे अपना बपतिस्मा याद आता और चित्त अशान्त हो जाता। एक रात को वह एक लम्बा लबादा ओ़े, सुन्दर केशों को एक काले टोप से छिपाये, शहर के बाहर विचर रही थी कि सहसा वह एक गिरजाघर के सामने पहुंच गयी। उसे याद आया, मैंने इसे पहले भी देखा है। कुछ लोग अन्दर गा रहे थे और दीवार की दरारों से उज्ज्वल परकाशरेखाएं बाहर झांक रही थीं। इसमें कोई नवीन बात न थी, क्योंकि इधर लगभग बीस वर्षों से ईसाईधर्म में को विघ्नबाधा न थी, ईसाई लोग निरापद रूप से अपने धमोर्त्सव करते थे। लेकिन इन भजनों में इतनी अनुरक्ति, करुण स्वर्गध्वनि थी, जो मर्मस्थल में चुटकियां लेती हुई जान पड़ती थीं। थायस अन्तःकरण के वशीभूत होकर इस तरह द्वार, खोलकर भीतर घुस गयी मानो किसी ने उसे बुलाया है। वहां उसे बाल, वृद्ध, नरनारियों का एक बड़ा समूह एक समाधि के सामने सिजदा करता हुआ दिखाई दिया। यह कबर केवल पत्थर की एक ताबूत थी, जिस पर अंगूर के गुच्छों और बेलों के आकार बने हुए थे। पर उस पर लोगों की असीम श्रद्घा थी। वह खजूर की टहनियों और गुलाब की पुष्पमालाओं से की हुई थी। चारों तरफ दीपक जल रहे थे और उसके मलिन परकाश में लोबान, ऊद आदि का धुआं स्वर्गदूतों के वस्त्रों की तहोंसा दीखता था, और दीवार के चित्र स्वर्ग के दृश्यों केसे। कई श्वेत वस्त्रधारी पादरी कबर के पैरों पर पेट के बल पड़े हुए थे। उनके भजन दुःख के आनन्द को परकट करते थे और अपने शोकोल्लास में दुःख और सुख, हर्ष और शोक का ऐसा समावेश कर रहे थे कि थायस को उनके सुनने से जीवन के सुख और मृत्यु के भय, एक साथ ही किसी जलस्त्रोत की भांति अपनी सचिन्तस्नायुओं में बहते हुए जान पड़े।

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